Friday, February 26, 2010

नज़्म

पीना कुफ़्र समझने वालों
साकी से आँख चुराने वालों
खनखन प्याले की सुन डर जाने वालों
शबनम के कतरों से प्यास बुझाने वालों
करूँ ज़िक्रे चश्मे बहिस्त तुमसे तो कैसे करूँ
झूठ दिलासा देने वालों
बेमतलब समझाने वालों
सहर के गीत सुनाने वालों
देर शाम जाते हुये खुर्शीद ने जिसके बाद
फ़िर लौट के आने का वादा ही न किया हो
करूँ उस सियाह रात की सुबह आह तो कैसे करूँ
इत्र का सौदा करने वालों
बहार पे दाँव लगाने वालों
चमन के ख्वाब सजाने वालों
खुशबुयें आवारा हैं बह जाती हैं बह जायेंगीं
नाहक ही हवायें कसूरवार कही जायेंगी
तू ठीक ही कहने आई है ये बात ऐ सबा
फ़ूल का दिल तोड़ूँ तेरा मददगार बनूँ या
इश्क की रीत पर हुस्न का तरफ़दार रहूँ
करूँ ऐसे मुआमलात का हल तो कैसे करूँ
मोटी पोथी पढ़ने वालों
बड़ी किताबें लिखने वालों
फ़िक्रे दुनिया में जीने वालों
ज़िन्दगी हर कदम आज़माये चली जाती है
और इसी कशमकश में खत्म हुई जाती है
इधर या उधर कुछ न भी हासिल हो मगर
जब तक सरहदें हैं किसी ओर तो रहना ही है
गुल ही नहीं काँटों से भी निबाह करना ही है
बात सीधी सी है दिल भी लेकिन दिल ठहरा
करूँ इसको समझने पे मज़बूर तो कैसे करूँ

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