इस तरह से मोहब्बत में सनम गुफ़्तगू होनी चाहिये
जुबाँ पर आये न आये बात दिल तक पहुँचनी चाहिये
माना दो दिन बीत गये पर दो दिन और बचे भी हैं
दिल मे रहेगा हौसला तो किस्मत भी सँवरनी चाहिये
बहुत कोहराम मचा रखा है उसके परदे ने अजल से
आगे दुनिया को बढ़ाना है तो निकाब उठनी चाहिये
माना कुछ और भी देखने को है महबूब के सिवा यहाँ
लेकिन पहले तो उसके चेहरे से निगाह हटनी चाहिये
रोज़े अब्र भी खूब थे और शबे माहताब भी गुज़रीं कई
जिस तरह मेरी कटी ज़िन्दगी सबकी गुज़रनी चाहिये
भगवान मीर, चचा ग़ालिब, मियाँ दाग, अंकल फ़िराक, दादा फ़ैज़, मस्त जिगर, भइया मजाज़ ..और भी तमाम हैं जो जिम्मेदार हैं कुछ अच्छा बन पड़ा हो तो !
Thursday, March 11, 2010
Tuesday, March 9, 2010
Monday, March 8, 2010
लोग जब अपना काम करते हैं
तब वे सबका काम करते हैं
हम ही नहीं अच्छे लोग भी
ज़िन्दगी यूँही तमाम करते हैं
बड़ी मुश्किल से होती है सुबह
यूँही सुबह को शाम करते हैं
ज़िन्दगी भर गालियाँ जबाँ पे
मरने पर राम राम करते हैं
अच्छे करते हैं छुपते छुपाते
खराब वही सरेआम करते हैं
सिर्फ़ हमीं करते हैं अच्छा
और सब बुरे काम करते हैं
सब उसी की सूरते हैं यहाँ
हम सब को सलाम करते हैं
गालियाँ देते हैं बुरा कहते हैं
सब लोग मेरा नाम करते हैं
सारे बैठे रहते हैं निठल्ले
मिसिर को बदनाम करते हैं
तब वे सबका काम करते हैं
हम ही नहीं अच्छे लोग भी
ज़िन्दगी यूँही तमाम करते हैं
बड़ी मुश्किल से होती है सुबह
यूँही सुबह को शाम करते हैं
ज़िन्दगी भर गालियाँ जबाँ पे
मरने पर राम राम करते हैं
अच्छे करते हैं छुपते छुपाते
खराब वही सरेआम करते हैं
सिर्फ़ हमीं करते हैं अच्छा
और सब बुरे काम करते हैं
सब उसी की सूरते हैं यहाँ
हम सब को सलाम करते हैं
गालियाँ देते हैं बुरा कहते हैं
सब लोग मेरा नाम करते हैं
सारे बैठे रहते हैं निठल्ले
मिसिर को बदनाम करते हैं
Saturday, March 6, 2010
Friday, March 5, 2010
Thursday, March 4, 2010
Wednesday, March 3, 2010
Tuesday, March 2, 2010
Monday, March 1, 2010
मैयत पर उनको देख कर अपनी ये अफ़सोस हुआ
उनके आने का भरोसा होता तो पहले ही मर रहते
तीर कमाँ में और सैयाद कमीं में लाख हो उड़ जाते
दरवाज़ा कफ़स का खुला मिल गया होता पर रहते
रंगोखुशबू के बिना काँटों सा खूब जिये तो भी क्या
बेहतर था भले सुबह खिलते शाम तलक झर रहते
चुप बैठ के सहने से तो उसके ज़ुल्म कम होने न थे
सुनता न सुनता वो जाने तुम अपनी तो मगर कहते
उनके आने का भरोसा होता तो पहले ही मर रहते
तीर कमाँ में और सैयाद कमीं में लाख हो उड़ जाते
दरवाज़ा कफ़स का खुला मिल गया होता पर रहते
रंगोखुशबू के बिना काँटों सा खूब जिये तो भी क्या
बेहतर था भले सुबह खिलते शाम तलक झर रहते
चुप बैठ के सहने से तो उसके ज़ुल्म कम होने न थे
सुनता न सुनता वो जाने तुम अपनी तो मगर कहते
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