बिगड़ी हुई तबीयत कभी यूँ भी संभलती है |
रात गए महफ़िल में ज्यूँ शम्आ मचलती है |
जीता भी है तो कैसे तू जिससे खफा हो बैठे |
आँख ही खुलती है बस सांस ही चलती है |
तक़दीर यहाँ सबकी हम जैसी नहीं होती |
किस्मत भी किसी के दरवाजे पे तरसती है |
जी भर नींद की फुर्सत नसीब किसे यहाँ |
इस दुनिया में तो बस आँख भर झपकती है |
खिरदमंदों ने हर पर्दा वा करने की ठानी है |
देखें किस तरह रुख से निकाब सरकती है |
भगवान मीर, चचा ग़ालिब, मियाँ दाग, अंकल फ़िराक, दादा फ़ैज़, मस्त जिगर, भइया मजाज़ ..और भी तमाम हैं जो जिम्मेदार हैं कुछ अच्छा बन पड़ा हो तो !
Wednesday, December 21, 2011
Friday, November 11, 2011
कुछ इस तरह से जमाने ने मिटाया है |
ढूँढता फिरता मुझको मेरा ही साया है |
कभी हँसे हैं लोग कभी तंज भी कसे हैं |
हमने बारहा जमाने पे तरस खाया है |
खुद में होते तो फिक्र अपनी भी करते |
वक्त ने मुझको मेरे पास नहीं पाया है |
तुम आखिर क्यों इसका हिसाब करो |
मैंने भला क्या खोया और क्या पाया है |
न मानो तो किताबें खोल कर पढ़ लो |
अपने खुदा को तुम्ही ने तो बनाया है |
Monday, October 17, 2011
गर्दन झुकाई नजरें उठाई ज़रा मुस्करा दिया |
बिना तलवार उसने कितनों को गिरा दिया |
अक्सर तो ज़िंदगी में दोपहर की सी धूप थी |
जुल्फों की घनी छाँव ने सबको आसरा दिया |
छोटा बड़ा अच्छा बुरा नाम क्या बदनाम क्या |
वक्त के साथ जमाने ने सबको बिसरा दिया |
दुनिया में अबतक लड़के तो जीता नहीं कोई |
मुहब्बत करने वालों ने परचम लहरा दिया |
या तो लोग अपने ही दुश्मन हैं या बेवकूफ |
हमने मसीहाओं को ही कातिल ठहरा दिया |
किस खेत की मूली हो तुम आखिर मिसिर |
रोटी की फिकिर ने सबको यहाँ घबरा दिया |
Friday, October 7, 2011
आँखों में समाकर दिल में उतर गए |
नाम पे मेरे जो महफ़िल में मुकर गए |
उनके आने तक तो हम होश में ही थे |
न जाने वो फ़िर कब और किधर गए |
पूछा किये उनसे अपना पता अक्सर |
फ़िर लेकर उन्ही से अपनी खबर गए |
इन्ही आँखों ने उनको जाते हुये देखा |
ऐसे भी कुछ हादिसे हम पे गुजर गए |
बागबाँ से लड़ के गुलशन से अब हम |
इसी शाम निकले नहीं तो सहर गए |
Wednesday, October 5, 2011
साथ चलो तो वक्त सर पे उठा लेता है |
आगे चलने की मगर ये सजा देता है |
ये किताब भी किसी काम की न रही |
हर कोई अब इसे माथे से लगा लेता है |
पत्थरों का हो या हीरों का क्या फर्क |
चाहे जिसका भी हो बोझ डुबा देता है |
क्या क्या न सितम होते हैं ज़िंदगी में |
आदमी मरने पे उसे खुदा बना देता है |
सुनता तो नहीं कोई बातें मसीहा की |
उसके पीछे से मगर रस्म चला देता है |
लिख लिख के गज़ल लोग कहते हैं |
मिसिर बस रामकहानी सुना देता है |
Sunday, October 2, 2011
बड़ी मुश्किल है ये जो कभी मचल जाये |
दिल कोई बच्चा तो नहीं जो बहल जाये |
दोनों जहां भी देकर देखो इक बार इसे |
शायद मान जाये शायद ये संभल जाये |
इसने तो मेरा जीना हराम कर दिया है |
कोई ले जाये ये दिल दूसरा बदल जाये |
एक ही है तमन्ना इस दिल में बसी हुई |
तुम आओ किसी रोज तो निकल जाये |
जो तोड़ना हो दिल तो एक इल्तिजा है |
ये देखना कहीं पता इसे न चल जाये |
Friday, September 30, 2011
वेद ओ कुरआन को हम भी कामिल समझते थे |
मील का पत्थर निकला जिसे मंजिल समझते थे |
उनकी भी सोहबत में गुज़ार के वक्त देख लिया |
अपने जैसे ही निकले जिन्हें काबिल समझते थे |
न हम उनकी जुबाँ समझे न वो मेरी जुबाँ समझे |
वीराना सा लगा मुझको जिसे महफ़िल समझते थे |
मरते रहने के सिवा तो कुछ न हुआ जिन्दगी से |
कैसे नासमझ थे जो मौत को कातिल समझते थे |
न ज़न्नत न दोजख कुछ न पाया मरने के बाद |
बेकार ही हम ज़िंदगी का ये हासिल समझते थे |
उसमे से कितना तो लहू इंसानियत का बह गया |
बस किताब ही निकली जिसे नाजिल समझते थे |
कामिल - पूर्ण |
खैरमकदम - स्वागत |
नाजिल - अवतरित |
Wednesday, September 28, 2011
यहाँ कितनों को रहनुमाई का शौक है |
आदमी आज ढूँढे से जहाँ नहीं मिलता |
ये कैसी बहार है और कैसा है ये चमन |
एक भी फूल देखिये यहाँ नहीं खिलता |
इस कदर बेहिसी कि कटते रहें दरख्त |
पत्ता भी मगर इस बाग का नहीं हिलता |
हमारी नाफर्मानियों का हिसाब नहीं |
इतनी कि अब तो खुदा भी नहीं गिनता |
इतनी किताबें और इस कदर जाहिली |
बेहतर था मिसिर तू और नहीं लिखता |
Monday, September 12, 2011
अब इस दुनिया को जब फ़िर से बनाया जाएगा |
हुक्मरानों के सीनों में भी दिल लगाया जायेगा |
खेमों में बाँट रखना जालसाजी है सियासत है |
लकीरें जो हैं नहीं कहीं उनको मिटाया जाएगा |
अगर दिल में मुहब्बत हो तो फ़िर तेरा मेरा क्या |
पत्थर की दीवारों को शीशे से गिराया जायेगा |
सर को झुकाए रखना इंसानियत की तौहीन है |
गर्दन पर जब तलक है शान से उठाया जाएगा |
Thursday, September 8, 2011
सुबह की शाम हर शब की सहर होती है |
ये हकीकत तो हमपे रोज जबर होती है |
हर वक्त आने वाले पल का इन्तिज़ार |
जिन्दगी अपनी बस यूँही बसर होती है |
नहीं बच पाता है बीमार इश्क में कोई |
जब तक कि चारागर को खबर होती है |
आँखों में ही कटती है हमारे घर में रात |
उनके यहाँ तो पल भर में सहर होती है |
यहाँ जिन्दगी जब भी रहगुज़र होती है |
एक बस मौत ही तो हमसफर होती है |
Wednesday, September 7, 2011
Saturday, September 3, 2011
Friday, September 2, 2011
रोशनी नहीं है या कहो अन्धेरा है | |
हमको हरहाल ग़ुरबत ने घेरा है | |
सिवाय यादों के कुछ नहीं यहाँ | |
ये दिल है कि भूतों का बसेरा है | |
चंद मुर्दा मुलाकातों के एहसास | |
वक्त ने किस कदर मुंह फेरा है | |
कुछ खुशनसीबों को पता नहीं | |
जुल्फों के सिवा भी कुछ घनेरा है | |
दिल है तेरा मगर फ़िर भी दर्द है | |
न जाने क्या मेरा है क्या तेरा है | |
|
|
मैंने दर्दो गम का मंज़र उकेरा है | |
कुछ भी नहीं जो हमेशा साथ रहे | |
क्या है यहाँ जिसे कहिये मेरा है |
Thursday, September 1, 2011
Tuesday, August 30, 2011
Thursday, August 25, 2011
कभी किसी की ज़िंदगी में ऐसी रात न हो |
वो यूँ चले जा रहे हैं जैसे कोई बात न हो |
मर जायेंगे अगर बोझ है ज़िंदगी लेकिन |
फ़िर क्या करेंगे जो ग़मों से निजात न हो |
अब फ़िर से बनाना मुझको तो इस तरह |
आँख में आंसू न हो सीने में जज्बात न हो |
क्यों खुश बैठ रहें अगर देनेवाला तू ही है |
जब तक हमारे कदमो में कायनात न हो |
लेकिन इन्ही लोगों का तो ये जिम्मा था |
ये देखना कि लोगों पे जोर ज़ुल्मात न हो |
बावजूद पहरे के कारवाँ लुट गया कैसे |
देखो ये कहीं रहबर की करामात न हो |
Monday, August 22, 2011
Tuesday, August 16, 2011
न बाँधो ज़ोर से मुट्ठी ज़िन्दगी रेत है फ़िसल जायेगी
कब्र की ओर नहीं तो बता ज़िन्दगी किधर जायेगी
जैसे ओस की बूँद है कांपती हुई घास की नोंक पर
ये ज़िंदगी बस एक हवा के झोंके से बिखर जायेगी
हारने को कुछ नहीं और जीतने को दुनिया पड़ी है
फिर नहीं कोई और बाज़ी अब इससे बेहतर आएगी
ज़िंदगी दरिया की मौज औ तिनके सी हस्ती अपनी
चाहें न चाहें हम ये तो ले ही जायेगी जिधर जायेगी
कब्र की ओर नहीं तो बता ज़िन्दगी किधर जायेगी
जैसे ओस की बूँद है कांपती हुई घास की नोंक पर
ये ज़िंदगी बस एक हवा के झोंके से बिखर जायेगी
हारने को कुछ नहीं और जीतने को दुनिया पड़ी है
फिर नहीं कोई और बाज़ी अब इससे बेहतर आएगी
ज़िंदगी दरिया की मौज औ तिनके सी हस्ती अपनी
चाहें न चाहें हम ये तो ले ही जायेगी जिधर जायेगी
Wednesday, August 10, 2011
Tuesday, August 2, 2011
रहजनों की अगुआई में चल रहे हैं काफिले |
याँ किसी को आजकल रहबरी आती नहीं |
उनके हक में है बीमार अच्छा न होने पाए |
ऐसा नहीं कि उनको चारागरी आती नहीं |
नाज़ो अंदाज़ तो अब भी खूब है दुनिया में |
लेकिन हर किसी को दिलबरी आती नहीं |
हर एक बात पर संजीदा हो जाते हैं लोग |
समझ में किसी की मसखरी आती नहीं |
वही कहता है जो ग़ालिबो मीर कह चुके |
कहते हैं मिसिर को शायरी आती नहीं |
Thursday, July 28, 2011
Tuesday, July 26, 2011
रहजनों की अगुआई में हैं काफिले |
दुनिया में आज कोई रहबर नहीं है |
हुकूमत करने वाले थोड़े से लोग हैं |
बरबादी का जिम्मा सब पर नहीं है |
उनके हक में है बीमार अच्छा न हो |
ऐसा नहीं कि कोई चारागर नहीं है |
हर बात में सबसे ऊपर कौन है यहाँ |
आदमी आदमी से बढ़कर नहीं है |
भीड़ के धोके में मत रहना मिसिर |
कोई भी यहाँ तेरा हमसफ़र नहीं है |
कत्अः |
बचे होते तेरी निगाह से तो कहते |
इससे तेजतर कोई नश्तर नहीं है |
हमने भी करके देखा मीर साहब |
नशा होशियारी से बेहतर नहीं है |
उसकी कोई शक्ल है नहीं फ़िर भी |
कोई शक्ल उससे बेहतर नहीं है |
Monday, July 25, 2011
उनकी बात ही सुना कुछ और है |
हकीकत मैने जाना कुछ और है |
तेरी साफगोई का भरोसा कर लूँ |
नज़र कहती मगर कुछ और है |
भली लगती है बात ज़ाहिद की |
मजमूने बयाँ मगर कुछ और है |
इंसान खुद को समझते हैं जरूर |
हमारी हरकतें मगर कुछ और हैं |
ईमानदारी अच्छी बात है लेकिन |
जीने का तरीका तो कुछ और है |
दीखता तो हम जैसा ही है मगर |
मिसिर आदमी ही कुछ और है |
Saturday, July 23, 2011
टिकी हो जिनकी रोज़ी रोटी मसलों पर |
मसाइल रोज़ी रोटी के वे सुलझायें क्यों |
हमदर्दी के सिवा कुछ कर सके है कौन |
किसी को जख्म अपने दिखलायें क्यों |
जंजीरों को जेवर समझ के खुश हैं लोग |
हकीकत मुश्किल हो तो समझाएं क्यों |
इनसे बेहतर होगा इनका बनाने वाला |
इन सूरतों से फ़िर दिल को बहलायें क्यों |
देखा तो नहीं किसी को लौट कर आते |
ये तय हो तो फ़िर मौत से घबराएं क्यों |
ठीक रस्ते पर ये दुनिया चल रही हो |
तो फ़िर नसीहतें मिसिर फरमाएं क्यों |
Friday, July 22, 2011
Thursday, July 21, 2011
Monday, July 18, 2011
Wednesday, July 6, 2011
शिकायतों का दौर खत्म हो तो कुछ बात करें |
तोहमतों पे जोर खत्म हो तो कुछ बात करें |
मसले नाजुक हैं ज़रा गौर से सुनने होंगे |
गोलियों का शोर खत्म हो तो कुछ बात करें |
गड़े मुर्दे उखाड़ने से तो कुछ नहीं हासिल |
लाशें बिछाना खत्म हो तो कुछ बात करें |
झगड़ा हमारा है हमीं से सुलझेगा बेहतर |
दखल गैर का खत्म हो तो कुछ बात करें |
इंसानियत को तरक्की और अमन चाहिए |
बमों का खौफ़ खत्म हो तो कुछ बात करें |
खुद को डसने लगें हैं आस्तीनों के सांप |
अब उनके ठौर खत्म हों तो कुछ बात करें |
Tuesday, July 5, 2011
Monday, May 23, 2011
Wednesday, March 30, 2011
दीनो मज़हब के मसाइल वो हल करते रहे
मुहब्बत जिनकी फितरत थी सो करते रहे
पता उनको भी था कहाँ रख दी जबीं उनने
सजदा आदत में था शुमार सो करते रहे
चंद गैर मुतमईन लोगों से है जिंदगी में रंग
तमाम बुजदिल तो जो मिली बसर करते रहे
बिन पेंदे के घड़े निकलीं ख्वाहिशें आखिर
बेवकूफ ही थे हम सब ता उमर जो भरते रहे
मालूम हमको भी थी जन्नत की हकीकत
ग़ालिब की तरह से कहने में मगर डरते रहे
मुहब्बत जिनकी फितरत थी सो करते रहे
पता उनको भी था कहाँ रख दी जबीं उनने
सजदा आदत में था शुमार सो करते रहे
चंद गैर मुतमईन लोगों से है जिंदगी में रंग
तमाम बुजदिल तो जो मिली बसर करते रहे
बिन पेंदे के घड़े निकलीं ख्वाहिशें आखिर
बेवकूफ ही थे हम सब ता उमर जो भरते रहे
मालूम हमको भी थी जन्नत की हकीकत
ग़ालिब की तरह से कहने में मगर डरते रहे
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