Friday, September 30, 2011

वेद ओ कुरआन को हम भी कामिल समझते थे 
मील का पत्थर निकला जिसे मंजिल समझते थे 
उनकी भी सोहबत में गुज़ार के वक्त देख लिया 
अपने जैसे ही निकले जिन्हें काबिल समझते थे 
न हम उनकी जुबाँ समझे न वो मेरी जुबाँ समझे 
वीराना सा लगा मुझको जिसे महफ़िल समझते थे 
मरते रहने के सिवा तो कुछ न हुआ जिन्दगी से 
कैसे नासमझ थे जो मौत को कातिल समझते थे 
न ज़न्नत न दोजख कुछ न पाया मरने के बाद  
बेकार ही हम ज़िंदगी का ये हासिल समझते थे 
उसमे से कितना तो लहू इंसानियत का बह गया 
बस किताब ही निकली जिसे नाजिल समझते थे 
कामिल - पूर्ण 
खैरमकदम - स्वागत
नाजिल - अवतरित 

Wednesday, September 28, 2011

यहाँ कितनों को रहनुमाई का शौक है 
आदमी आज ढूँढे से जहाँ नहीं मिलता 
ये कैसी बहार है और कैसा है ये चमन 
एक भी फूल देखिये यहाँ नहीं खिलता 
इस कदर बेहिसी कि कटते रहें दरख्त 
पत्ता भी मगर इस बाग का नहीं हिलता 
हमारी नाफर्मानियों का हिसाब नहीं 
इतनी कि अब तो खुदा भी नहीं गिनता 
इतनी किताबें और इस कदर जाहिली 
बेहतर था मिसिर तू और नहीं लिखता 

Monday, September 12, 2011

अब इस दुनिया को जब फ़िर से बनाया जाएगा 
हुक्मरानों के सीनों में भी दिल लगाया जायेगा 
खेमों में बाँट रखना जालसाजी है सियासत है 
लकीरें जो हैं नहीं कहीं उनको मिटाया जाएगा 
अगर दिल में मुहब्बत हो तो फ़िर तेरा मेरा क्या 
पत्थर की दीवारों को शीशे से गिराया जायेगा
सर को झुकाए रखना इंसानियत की तौहीन है 
गर्दन पर जब तलक है शान से उठाया जाएगा 

Thursday, September 8, 2011

सुबह की शाम हर शब की सहर होती है
ये हकीकत तो हमपे रोज जबर होती है 
हर वक्त आने वाले पल का इन्तिज़ार 
जिन्दगी अपनी बस यूँही बसर होती है 
नहीं बच पाता है बीमार इश्क में कोई  
जब तक कि चारागर को खबर होती है
आँखों में ही कटती है हमारे घर में रात 
उनके यहाँ तो पल भर में सहर होती है 
यहाँ जिन्दगी जब भी रहगुज़र होती है 
एक बस मौत ही तो हमसफर होती है 

Wednesday, September 7, 2011

एक टुकड़ा प्यास को तरसता रहा पानी 
सहरां की तपती रेत पे बरसता रहा पानी 
कहाँ वो पहाड़ और अब ये नरक के घाट 
घर वापसी को बेचैन तडपता रहा पानी
पेड़ों की याद में जो हुआ करते थे कभी
गीली लकडियों सा सुलगता रहा पानी 
उतारा पहाड़ ने तो खुर्शीद की शह पर
फ़िर बादल पे चढ़ के मंडराता रहा पानी 

Saturday, September 3, 2011

महबूब की एक नज़र थी नहीं रही
जिंदगी बस एक सफर थी नहीं रही
और तो खैर क्या होता मर जाने से 
बेकार की खटर पटर थी नहीं रही
होना न होना नज़र का धोखा है
सागर में एक लहर थी नहीं रही 
सुना था कि जल्द सब ठीक होगा 
बासी सी एक खबर थी नहीं रही 

Friday, September 2, 2011

रोशनी नहीं है या कहो अन्धेरा है
हमको हरहाल ग़ुरबत ने घेरा है
सिवाय यादों के कुछ नहीं यहाँ 
ये दिल है कि भूतों का बसेरा है 
चंद मुर्दा मुलाकातों के एहसास 
वक्त ने किस कदर मुंह फेरा है 
कुछ खुशनसीबों को पता नहीं 
जुल्फों के सिवा भी कुछ घनेरा है 
दिल है तेरा मगर फ़िर भी दर्द है 
न जाने क्या मेरा है क्या तेरा है 
लोग कहते हैं ये अच्छी गज़ल है
मैंने दर्दो गम का मंज़र उकेरा है 
कुछ भी नहीं जो हमेशा साथ रहे 
क्या है यहाँ जिसे कहिये मेरा है

Thursday, September 1, 2011

दवाओं से न बन पड़े तो दुआ करे कोई
दुआओं का मारा हो तो क्या करे कोई
दो चार ही हों तो रास्ता दिखाये कोई
भटके हुये काफ़िले का क्या करे कोई
अँधेरा बहुत हो तो सूरज उतार लायें
बन्द खिड़कियों का क्या करे कोई
हरेक ख़्वाब हकीकत हो जाये अगर  
फ़िर किस उम्मीद पे जिया करे कोई