Wednesday, September 28, 2011

यहाँ कितनों को रहनुमाई का शौक है 
आदमी आज ढूँढे से जहाँ नहीं मिलता 
ये कैसी बहार है और कैसा है ये चमन 
एक भी फूल देखिये यहाँ नहीं खिलता 
इस कदर बेहिसी कि कटते रहें दरख्त 
पत्ता भी मगर इस बाग का नहीं हिलता 
हमारी नाफर्मानियों का हिसाब नहीं 
इतनी कि अब तो खुदा भी नहीं गिनता 
इतनी किताबें और इस कदर जाहिली 
बेहतर था मिसिर तू और नहीं लिखता 

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