यहाँ कितनों को रहनुमाई का शौक है |
आदमी आज ढूँढे से जहाँ नहीं मिलता |
ये कैसी बहार है और कैसा है ये चमन |
एक भी फूल देखिये यहाँ नहीं खिलता |
इस कदर बेहिसी कि कटते रहें दरख्त |
पत्ता भी मगर इस बाग का नहीं हिलता |
हमारी नाफर्मानियों का हिसाब नहीं |
इतनी कि अब तो खुदा भी नहीं गिनता |
इतनी किताबें और इस कदर जाहिली |
बेहतर था मिसिर तू और नहीं लिखता |
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