Friday, September 30, 2011

वेद ओ कुरआन को हम भी कामिल समझते थे 
मील का पत्थर निकला जिसे मंजिल समझते थे 
उनकी भी सोहबत में गुज़ार के वक्त देख लिया 
अपने जैसे ही निकले जिन्हें काबिल समझते थे 
न हम उनकी जुबाँ समझे न वो मेरी जुबाँ समझे 
वीराना सा लगा मुझको जिसे महफ़िल समझते थे 
मरते रहने के सिवा तो कुछ न हुआ जिन्दगी से 
कैसे नासमझ थे जो मौत को कातिल समझते थे 
न ज़न्नत न दोजख कुछ न पाया मरने के बाद  
बेकार ही हम ज़िंदगी का ये हासिल समझते थे 
उसमे से कितना तो लहू इंसानियत का बह गया 
बस किताब ही निकली जिसे नाजिल समझते थे 
कामिल - पूर्ण 
खैरमकदम - स्वागत
नाजिल - अवतरित 

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