वेद ओ कुरआन को हम भी कामिल समझते थे |
मील का पत्थर निकला जिसे मंजिल समझते थे |
उनकी भी सोहबत में गुज़ार के वक्त देख लिया |
अपने जैसे ही निकले जिन्हें काबिल समझते थे |
न हम उनकी जुबाँ समझे न वो मेरी जुबाँ समझे |
वीराना सा लगा मुझको जिसे महफ़िल समझते थे |
मरते रहने के सिवा तो कुछ न हुआ जिन्दगी से |
कैसे नासमझ थे जो मौत को कातिल समझते थे |
न ज़न्नत न दोजख कुछ न पाया मरने के बाद |
बेकार ही हम ज़िंदगी का ये हासिल समझते थे |
उसमे से कितना तो लहू इंसानियत का बह गया |
बस किताब ही निकली जिसे नाजिल समझते थे |
कामिल - पूर्ण |
खैरमकदम - स्वागत |
नाजिल - अवतरित |
भगवान मीर, चचा ग़ालिब, मियाँ दाग, अंकल फ़िराक, दादा फ़ैज़, मस्त जिगर, भइया मजाज़ ..और भी तमाम हैं जो जिम्मेदार हैं कुछ अच्छा बन पड़ा हो तो !
Friday, September 30, 2011
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