Thursday, July 28, 2011

किससे मांगिये कुछ भी
जहाँ मे कौन अमीर है
कुछ तो मांग है सबकी
हर एक यहाँ फ़कीर है
इश्के हकीकी के सिवा
दुनिया मे सब हकीर है
देखा नहीं उसे किसी ने
केवल वही बेनजीर है 
जिसके दम पे सब नूर है 
ये उसकी ही तस्वीर है

Tuesday, July 26, 2011

रहजनों की अगुआई में हैं काफिले 
दुनिया में आज कोई रहबर नहीं है
हुकूमत करने वाले थोड़े से लोग हैं 
बरबादी का जिम्मा सब पर नहीं है
उनके हक में है बीमार अच्छा न हो
ऐसा नहीं कि कोई चारागर नहीं है 
हर बात में सबसे ऊपर कौन है यहाँ 
आदमी आदमी से बढ़कर नहीं है 
भीड़ के धोके में मत रहना मिसिर 
कोई भी यहाँ तेरा हमसफ़र नहीं है 
कत्अः
बचे होते तेरी निगाह से तो कहते
इससे तेजतर कोई नश्तर नहीं है 
हमने भी करके देखा मीर साहब 
नशा होशियारी से बेहतर नहीं है 
उसकी कोई शक्ल है नहीं फ़िर भी  
कोई शक्ल उससे बेहतर नहीं है

Monday, July 25, 2011

उनकी बात ही सुना कुछ और है
हकीकत मैने जाना कुछ और है
तेरी साफगोई का भरोसा कर लूँ 
नज़र कहती मगर कुछ और है 
भली लगती है बात ज़ाहिद की 
मजमूने बयाँ मगर कुछ और है 
इंसान खुद को समझते हैं जरूर
हमारी हरकतें मगर कुछ और हैं 
ईमानदारी अच्छी बात है लेकिन 
जीने का तरीका तो कुछ और है
दीखता तो हम जैसा ही है मगर 
मिसिर आदमी ही कुछ और है 

Saturday, July 23, 2011

टिकी हो जिनकी रोज़ी रोटी मसलों पर
मसाइल रोज़ी रोटी के वे सुलझायें क्यों
हमदर्दी के सिवा कुछ कर सके है कौन
किसी को जख्म अपने दिखलायें क्यों 
जंजीरों को जेवर समझ के खुश हैं लोग
हकीकत मुश्किल हो तो समझाएं क्यों 
इनसे बेहतर होगा इनका बनाने वाला
इन सूरतों से फ़िर दिल को बहलायें क्यों
देखा तो नहीं किसी को लौट कर आते 
ये तय हो तो फ़िर मौत से घबराएं क्यों 
ठीक रस्ते पर ये दुनिया चल रही हो 
तो फ़िर नसीहतें मिसिर फरमाएं क्यों 

Friday, July 22, 2011

आदमी फूलों के ख़्वाब बुनता है
हकीकत में पत्थरों को चुनता है
कहते रहें कुछ भी आपकी मर्ज़ी 
वो तो जो चाहता है वही सुनता है
हर कोई मजे में है यहाँ सिवा मेरे
इसी गम में हर शख्स भुनता है
लोग नहीं बदलने वाले ज़रा भी 
मिसिर तू बेकार में सर धुनता है

Thursday, July 21, 2011

देख तो ये जहाँ अब भी है आबाद 
कुछ भी तो नहीं बदला मेरे बाद
ख़ाक थी मिल गई खाक में हस्ती 
रूह पहले भी थी और रही आज़ाद 
जो चल पड़े पा गए मंजिल आखिर
कुछ पत्थरों से करते रहे फ़रियाद 
रहनुमाओं की कमीं नहीं रही और 
हर दौर में ज़माना यूंही रहा बरबाद 

Monday, July 18, 2011

मंजिलें पूछती फिरती रहीं पता मेरा
नाकामी अपनी किस्मत थी सो रही
उनके वादे पे कभी ऐतबार नहीं रहा 
इन्तिज़ार अपनी आदत थी सो रही 
ज़िम्मा रहबरी का उठा लिया लेकिन
रहजनी उनकी फितरत थी सो रही 
मुसलसल ज़िक्रे-मय से हुआ मालूम 
ज़ाहिद की जो सोहबत थी सो रही 
मुहाफिज़ मुकर्रर किया गया हमको
ज़िंदगी उसकी अमानत थी सो रही 

Wednesday, July 6, 2011

शिकायतों का दौर खत्म हो तो कुछ बात करें
तोहमतों  पे जोर खत्म हो तो कुछ बात करें
मसले नाजुक हैं ज़रा गौर से सुनने होंगे 
गोलियों का शोर खत्म हो तो कुछ बात करें 
गड़े मुर्दे उखाड़ने से तो कुछ नहीं हासिल
लाशें बिछाना खत्म हो तो कुछ बात करें
झगड़ा हमारा है हमीं से सुलझेगा बेहतर
दखल गैर का खत्म हो तो कुछ बात करें
इंसानियत को तरक्की और अमन चाहिए 
बमों का खौफ़ खत्म हो तो कुछ बात करें 
खुद को डसने लगें हैं आस्तीनों के सांप 
अब उनके ठौर खत्म हों तो कुछ बात करें

Tuesday, July 5, 2011

मंजिलें पूछती फिरतीं हैं पता उनका
जो सिर्फ रास्तों के वफादार हो गए
मत ढूँढते फिरो कूये यार में दोस्तों
वो तो जाने कब के सरेदार हो गए
वफ़ा की उम्मीद तो हमें थी लेकिन
वो अपनी फितरत से लाचार हो गए
आदमी थे काम के सुना है हमने भी
एक मुद्दत से मिसिर बेकार हो गए