Wednesday, September 12, 2012

किया जरूर था मना हमने 
तो उन्हें मान जाना था क्या  
सब उसके हाल पे छोड़ दिया 
हाल अपना बताना था क्या 
बहुत जिक्र करता था जाहिद 
उसका आना जाना था क्या 
क्यों आखिर ये हमारा होता 
किसी का ज़माना था क्या 

Friday, September 7, 2012

आदमी बस अब चंद घड़ियों का मेहमान है
मौजूद उसके खात्मे का सारा सामान है 
सिमटते जा रहें हैं दिल जज़्बात औ रिश्ते 
जितनी बड़ी बन्दूक वो उतना महान है 
रोटी की जगह गोदामों मे गोले बारूद हैं  
गज़ब मूरख है और समझता विद्वान है 

Monday, September 3, 2012

कुछ लोग सियासत करते हैं कुछ लोग बगावत करते हैं 
कुछ ऐसे भी हैं लोग यहाँ पर जो सिर्फ शिकायत करते हैं 
रोटी की तरह इन्साफ भी अब बहुतों की पहुँच से बाहर है 
कुव्वत वाले लोग ही केवल कचहरी अदालत करते हैं 
चुपचाप रहो चुपचाप सहो जो भी हुक्म हो आकाओं का 
काँधे से हट जाते हैं सर जो उठने की हिमाकत करते हैं 
वही लुटेरे बदल के चेहरे फिर फिर आकर जम जाते हैं 
बिना वजह हर पाँच साल में हम बड़ी कवायद करते हैं 

Friday, August 24, 2012

हमारी मुश्किलों से उन्हें सरोकार नहीं

जो दिखता है वो उनका कारोबार नहीं

जिन्हें हमने अपना रहनुमा बना दिया

चालाक तो वे हैं लेकिन होशियार नहीं

अपने फायदे तक तो सरपरस्त बने रहे

उसके बाद वो फिर किसी के यार नहीं

बस अपना ही घर भर के खुश बैठ रहे

कुँए से बाहर मेढकों का संसार नहीं

Monday, August 20, 2012

दैरो हरम और बाज़ार में भला क्या फर्क है

कुछ दिया जाता रहा कुछ लिया जाता रहा

हिन्दू औ मुसलमां बनके इंसान नहीं रहा

तोड़ी मस्जिद और कभी मंदिर जलाता रहा

गुजरते वक्त के साथ खिलौने बदलते रहे

आदमी ताउम्र केवल दिल को बहलाता रहा

Friday, August 17, 2012

निगाहों को और ऊँचे लगाया जाए

आसमान को ऊपर से हटाया जाए

हैं नहीं कहीं पर फसाद की जड़ हैं

जमीन से लकीरों को मिटाया जाए

बदलते वक्त में नई राहें फोड़नी हैं

चलो अब पत्थरों से टकराया जाए

चिरागों की आंधियों से ठन गई है

फिर किसी सूरज को उगाया जाए

यूँही बेकार न बहता रहे पसीना

थोड़ा लहू इस वास्ते बहाया जाए


Thursday, August 9, 2012

रास्ते यहाँ सबको खूब भरमाते रहे

खुद तो पड़े रहे दुनिया चलाते रहे

मंजिल तक कौन यहाँ पहुँच पाया

लोग राह पर खड़े पता बताते रहे

सबको सुधारने का ठेका ले लिया

वो इस बहाने से वहाँ आते जाते रहे

हमें भी कभी चैन से सोने न दिया

आते जाते दरवाजा खटखटाते रहे

Monday, August 6, 2012

रोती चीखती सर पटक कर चिल्लाती रही

इंसानों की बस्ती से इन्सानियल जाती रही

तमाम लोग खुद को ज़िंदा समझते रहे यहाँ

मेरे देखे उनको सांस भर आती जाती रही

इस कदर बेइज्जती से सामना करना पड़ा

जिंदगी यहाँ ताउम्र अपना मुंह छुपाती रही

फूल इस अंजुमन में अधखिले ही रह गए

कहने को तो बहार भी आती रही जाती रही

Friday, July 20, 2012

उसको रंजिश अभी शायद मुझसे बाकी है

जब भी मिलता है बड़े तपाक से मिलता है

शिकायतें शर्तें बहाने शर्म और मजबूरियाँ

हमसे वो हमेशा भीड़ के साथ मिलता है

काँटो के सिवा कुछ नहीं देने को जिन्हें

अक्सर उनका चेहरा गुलाब से मिलता है

दूर रहकर बड़ी चोट करनी मुश्किल है

उससे होशियार जो आके गले मिलता है

कटोरे मे कुछ नहीं तिजोरी मे और और

न जाने यहाँ किस हिसाब से मिलता है

Thursday, July 5, 2012

एक सिर्फ हमीं में जरूर कुछ बुराई है

और तो सब से उनकी शनासाई है

हमें क्या पड़ी जो कहते फिरें सबसे

कैसे कैसों की उनके यहाँ रसाई है

न वो जमाना रहा न रिवाजें लेकिन

मुहब्बत में आज भी बड़ी रुसवाई है

बड़े अंदाज से चलते हुए आये थे वो

पूछते थे कि आग किसने लगाईं है

Thursday, June 28, 2012

जमाने का एक ऐसा भी रंग देखा है
उसके हालात पे उसी को दंग देखा है
देखा है किताबों से लहू रिसते हुए
और अमन के लिए होते जंग देखा है
दैरो हरम में इबादत करते देखा है
उसी इंसान के हाथों में संग देखा है
भैंस का हिसाब लाठियों से अभी भी
इन्साफ का ऐसा ही ढंग देखा है

Wednesday, June 27, 2012

न देखा न बोले हमसे न मुस्कराए न सलाम किया

रात महफ़िल में उनने सब जाहिर सरेआम किया

जिस्मे बला नाजुक लब वो निगाहें वो अंदाजो अदा

सारे फितने उसके थे और मुफ्त हमें बदनाम किया

कैसे कैसे किस्मत वाले उन की बज्म में पहुंचे होंगे

हमने तो दरवाजे पर ही सारा वक्त तमाम किया

अक्सर हमने उठ उठ कर सोचा सबके साथ चलें

दिल ने ऐसी कोशिश को हरदम ही नाकाम किया

अमन चैन तो बाते हैं दुनिया को फितने ही भाते हैं

तैमूर ओ चंगेजों ने अपना यूँही तो नहीं नाम किया

Monday, May 21, 2012

यूँही दिन गुज़र गया रात यूँही ढल गई

बच बच के हमसे ज़िन्दगी निकल गई

कहना तो दूर जो कभी सोची तक नहीं

उनको वो बात कुछ ज्यादा ही खल गई

कल वहीं नासेह से मुलाकात क्या हुई

तौबा तो की थी पर तबीयत मचल गई

Thursday, May 17, 2012

वो मुझको बहुत भाता रहा

ये बात मैं खुदसे छुपाता रहा

मैं होता रहा कत्ल सरेआम

वो सर झुकाये शर्माता रहा

अब वो गालियाँ भी नहीं देते

पीने का तो मजा जाता रहा

इसे ज़िंदगी कहो तो कहो

सांस भर आता जाता रहा

Tuesday, March 27, 2012

कहा कुछ भी नहीं किसी ने और सुन लिया हमने

मन ही मन में न जाने क्या क्या गुन लिया हमने

मुश्किल है हकीकत में बिना ख़्वाबों के जी पाना

इक अभी टूटा ही था फिर दूसरा बुन लिया हमने

शायद न हो वही हस्र उस राह पर इस बार मिसिर

दिल के छलावे में फिर उसी को चुन लिया हमने

Monday, March 26, 2012

भूख के अहसास को इंकलाबियों को कहने दो

गज़ल को माशूक की मरमरी बाहों में रहने दो

हर एक मंजिल को सूए दार नहीं होना चाहिए

कुछ को तो दिलबरे नादाँ की राहों में रहने दो

जी नहीं सकते सिर्फ रोटी से कहा था ईसा ने

कुछ तो खुशबू सुखन की गुलाबों में रहने दो

ज्यादातर तो गमे रोजगार में बह जाता ही है

कुछ रंगे लहू कमसिन के आरिजों में रहने दो

मुफलिसों की अंजुमन बेवा के माथे की शिकन

मसाइलों को सियासी गलियारों में रहने दो

हुस्नो इश्क न डूब जायें कहीं नारों के शोर में

इस हसीन नज़्म को पैमानों बहारों में रहने दो